कब ये जहाँ समझता है !
कभी
रात जगमगाती है ,
कभी
ख़्वाब मुस्कुराते हैं ,
कभी
होंठ थरथराते हैं ,
कभी
सांस गुनगुनाती है,
ये
जो बेख़ुदी का आलम है
कब ये जहाँ समझता है!
कभी
अजनबी सदायें हैं
कभी
दर्द की अदाएं हैं
कभी
ज़ख्म खिलखिलाते हैं
कभी अश्क़ झिलमिलाते हैं
ये
जो बंदगी का आलम है
कब
ये जहाँ समझता है !
कभी
आग है, कभी आब है
कभी
आंधी -ओ -सैलाब है
कभी
मुन्तज़िर है ये ज़मीं
कभी
आसमां बेताब है
ये
जो ज़िन्दगी का आलम है
कब
ये जहाँ समझता है !
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