Tuesday, July 10, 2012

शिफ़ा ग्वालियरी

हमारा पूछना क्या हम वो जांबाज़-ए -मुहब्बत हैं 
हमारी मौत में भी इक अदा-ए -ज़िन्दगी होगी.


जो इंसानियत की जबीं जगमगा दे 
हम ऐसी 'शिफ़ा' शायरी चाहते हैं .

Monday, July 9, 2012

क़ासिम रसा

लोग बहुत मशहूर मिले 
लेकिन सब मजबूर मिले.

फूलों की क्या बात करें 
कांटे भी मग़रूर मिले.

शकील ग्वालियरी

ये  जो  मीलों  लकीरें  सी  नज़र  आती  हैं  सहरा  में
सफ़रनामा हवा  का  रेत की  चादर  पे  लिक्खा है .

 - शकील ग्वालियरी

Saturday, July 7, 2012

कब ये जहाँ समझता है!


कब  ये  जहाँ  समझता  है !


कभी  रात  जगमगाती  है ,
कभी  ख़्वाब मुस्कुराते  हैं ,
कभी  होंठ  थरथराते  हैं ,
कभी  सांस  गुनगुनाती  है,
ये  जो  बेख़ुदी का  आलम  है 
 कब  ये  जहाँ  समझता  है!

कभी  अजनबी   सदायें  हैं 
कभी  दर्द  की  अदाएं  हैं
कभी  ज़ख्म  खिलखिलाते  हैं
कभी   अश्क़ झिलमिलाते  हैं
ये  जो  बंदगी  का  आलम  है
कब   ये  जहाँ  समझता  है !

कभी  आग  है, कभी  आब  है
कभी  आंधी -ओ -सैलाब  है
कभी  मुन्तज़िर है  ये  ज़मीं 
कभी  आसमां बेताब  है
ये  जो   ज़िन्दगी  का  आलम  है
कब  ये  जहाँ  समझता  है !